सृष्टि की किसी भी वस्तु का अधिक मात्रा में उपभोग करना अनुचित होता है , और इस तथ्य के बावजूद हमें इस सृष्टि से ऊपर उठने के लिए सृष्टि की सारी वस्तुओं का उपभोग करने की आवश्यकता होती है। सृष्टि ने हर व्यक्ति को अपना जीवन सही तरीके से जीने हेतु और उसकी सारी जरूरतों को पूरा करने हेतु उसे कई सारे साधन प्रदान किये हैं। यहाँ हमें इस तथ्य को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है की इंसान की जरूरतें सीमित होती हैं किन्तु उसकी इच्छाएँ असीम होती हैं। मायाजाल की उपज इंसान की जरूरतों से नहीं अपितु उसकी इच्छाओं से होती है।
अगर जाल में फंसा कोई कीटक खुद के शरीर को जोर से हिलाने लगे , तो वह कीटक उस जाल में अधिक उलझकर रह जाता है और फंस जाता है और मायाजाल का बिलकुल यही कार्य होता है। इंसान की इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता। आपकी इच्छाएँ जितनी तीव्र होती हैं , उतनी ही तीव्रता से आप आपके इन्द्रियों के प्रति आसक्ति रखते हैं, और जितनी तीव्रता से आप अपने इन्द्रियों के प्रति आसक्ति रखते हैं , आपकी भौतिक संपत्ति एवं भौतिक विशेषताएँ उतनी तेजी से नश्वरता की ओर बढ़ती जाती है? जब हम रेत को हमारी मु_ी में पकडऩे का प्रयास करते हैं , तो बिलकुल ऐसा ही होता है - हम जितनी मजबूती से हमारी मु_ी में रेत को पकडऩे का प्रयास करते हैं , उतनी ही तेजी से रेत हमारी मु_ी से छूटने लगती है।
अगर आप आपकी इच्छाओं का पीछा करते रहे , तो वे आपको आजीवन उनका पीछा करने पर मजबूर करते रहेंगे - वही इच्छा , उसका स्वरुप बदलकर आप में जागृत होती रहेगी। आज आपको गाड़ी की इच्छा होगी , कल आपको उससे बड़ी गाड़ी की इच्छा होगी एवं परसो आपको उससे भी बड़ी और आरामदेह गाड़ी की इच्छा होगी। ऐसा करते करते जब आपका शरीर छोडऩे का समय आएगा तब भी आपकी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होगी अपितु आपकी इच्छाएँ और प्रबल होंगी । आप अपनी इच्छाओं के पीछे भागकर खुद के लिए जितना इकठ्ठा करते जाते हैं , उतना ही आप आध्यात्मिक उन्नति की सीधी के निचले स्तरों की और बढऩे लगते हैं , जिसके कारण आपको दोबारा जन्म लेना पड़ता है और यह जन्म आपके वर्तमान स्वरुप से निचले स्वरुप में होता है , जिसमें आपको वर्तमान जीवन से कई गुना अधिक दुखों और मुसीबतों का सामना करना पड़ता है ।
आपके पास अगर कोई भौतिक वस्तु जरूरत से अधिक मात्रा में होती है, तो वास्तव में वह किसी और का हिस्सा है जिसका उपभोग आप कर रहे हैं । अर्थशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसके अन्तर्गत संसाधनों की क्षमता सीमित होती है अपितु मानवी इच्छाएँ असीम होती हैं । हर जाति -धर्म एवं अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांत समान हैं । इसी कारण से यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि अगर आप आपकी जरूरत से अधिक मात्रा में किसी भौतिक वस्तु का उपभोग कर रहे हैं तो आप किसी और के हिस्से पर कब्ज़ा जमा रहे हैं , और जाने अनजाने में उस जीव के दु:ख का कारण बन रहे हैं। कर्म सिद्धांत कहता है कि हम जो देते हैं , वही पाते हैं।
बिलकुल यही कारण है की पतंजलि अष्टांग योग में अपरिग्रह अर्थात भौतिक वस्तु को इकठ्ठा करके न रखने के सिद्धांत का यम के तौर पर उल्लेख किया गया है। क्या आप किसी ऐसे सामान्य इंसान को जानते हैं जो की अपने जीवन से अत्यंत सुखी एवं संतुष्ट हो ? अगर इस सवाल पर आपका जवाब हाँ है , तो मेरी सलाह है की आप उसे ही अपना गुरु बना लीजिये, चूँकि इस सृष्टि में सही तरीके से जीने की कुंजी उसी के पास आपको मिलेगी ।
-योगी अश्विनि
अगर जाल में फंसा कोई कीटक खुद के शरीर को जोर से हिलाने लगे , तो वह कीटक उस जाल में अधिक उलझकर रह जाता है और फंस जाता है और मायाजाल का बिलकुल यही कार्य होता है। इंसान की इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता। आपकी इच्छाएँ जितनी तीव्र होती हैं , उतनी ही तीव्रता से आप आपके इन्द्रियों के प्रति आसक्ति रखते हैं, और जितनी तीव्रता से आप अपने इन्द्रियों के प्रति आसक्ति रखते हैं , आपकी भौतिक संपत्ति एवं भौतिक विशेषताएँ उतनी तेजी से नश्वरता की ओर बढ़ती जाती है? जब हम रेत को हमारी मु_ी में पकडऩे का प्रयास करते हैं , तो बिलकुल ऐसा ही होता है - हम जितनी मजबूती से हमारी मु_ी में रेत को पकडऩे का प्रयास करते हैं , उतनी ही तेजी से रेत हमारी मु_ी से छूटने लगती है।
अगर आप आपकी इच्छाओं का पीछा करते रहे , तो वे आपको आजीवन उनका पीछा करने पर मजबूर करते रहेंगे - वही इच्छा , उसका स्वरुप बदलकर आप में जागृत होती रहेगी। आज आपको गाड़ी की इच्छा होगी , कल आपको उससे बड़ी गाड़ी की इच्छा होगी एवं परसो आपको उससे भी बड़ी और आरामदेह गाड़ी की इच्छा होगी। ऐसा करते करते जब आपका शरीर छोडऩे का समय आएगा तब भी आपकी इच्छाओं की तृप्ति नहीं होगी अपितु आपकी इच्छाएँ और प्रबल होंगी । आप अपनी इच्छाओं के पीछे भागकर खुद के लिए जितना इकठ्ठा करते जाते हैं , उतना ही आप आध्यात्मिक उन्नति की सीधी के निचले स्तरों की और बढऩे लगते हैं , जिसके कारण आपको दोबारा जन्म लेना पड़ता है और यह जन्म आपके वर्तमान स्वरुप से निचले स्वरुप में होता है , जिसमें आपको वर्तमान जीवन से कई गुना अधिक दुखों और मुसीबतों का सामना करना पड़ता है ।
आपके पास अगर कोई भौतिक वस्तु जरूरत से अधिक मात्रा में होती है, तो वास्तव में वह किसी और का हिस्सा है जिसका उपभोग आप कर रहे हैं । अर्थशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसके अन्तर्गत संसाधनों की क्षमता सीमित होती है अपितु मानवी इच्छाएँ असीम होती हैं । हर जाति -धर्म एवं अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांत समान हैं । इसी कारण से यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि अगर आप आपकी जरूरत से अधिक मात्रा में किसी भौतिक वस्तु का उपभोग कर रहे हैं तो आप किसी और के हिस्से पर कब्ज़ा जमा रहे हैं , और जाने अनजाने में उस जीव के दु:ख का कारण बन रहे हैं। कर्म सिद्धांत कहता है कि हम जो देते हैं , वही पाते हैं।
बिलकुल यही कारण है की पतंजलि अष्टांग योग में अपरिग्रह अर्थात भौतिक वस्तु को इकठ्ठा करके न रखने के सिद्धांत का यम के तौर पर उल्लेख किया गया है। क्या आप किसी ऐसे सामान्य इंसान को जानते हैं जो की अपने जीवन से अत्यंत सुखी एवं संतुष्ट हो ? अगर इस सवाल पर आपका जवाब हाँ है , तो मेरी सलाह है की आप उसे ही अपना गुरु बना लीजिये, चूँकि इस सृष्टि में सही तरीके से जीने की कुंजी उसी के पास आपको मिलेगी ।
-योगी अश्विनि
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